गजल...
याद वो उनकी फिर से दिलाने लगे
है पता हमको यह कि जलाने लगे...
चल सके न जमाने में जो आज तक
देखिए वो ही हमको चलाने लगे....
पास रहना मुनासिब न जिसको लगा
कुछ तो है जो गले से लगाने लगे...
देखकर भूख लोगों की इस भीड़ में
घर के बाहर वो खाना खिलाने लगे.....
वक्त का खेल 'राही'' अलग ही ज़हां
आज सर अपना सभी ही हिलाने लगे.....
डाॅ. राजेन्द्र सिंह "राही"